Gyan Ganga

ज्ञान गंगा: हमें भी अपने जीवन में माँ पार्वती के आदर्शों को धारण करना चाहिए

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श्री पार्वती जी साक्षात भवानी हैं। वे जगत जननी हैं। लेकिन तब भी वे अपने जीवन चरित्र के माध्यम से यह शिक्षा देना चाहती हैं, कि जीवन में आप अगर महाशक्तिशाली भी हैं, सब प्रकार से संपन्न हैं, तो भी तप का महत्व आप कम नहीं आँक सकते हैं। वर्तमान संसार में आप देखिए, जीव को तनिक सी भी मायावी सफलता प्राप्त हो जाये, वह इतना आलसी हो जाता है, कि प्रत्येक कार्य मशीनों पर ही टाल कर चलता है।

तप की तो इसे जैसे आवश्यक्ता ही नहीं है। जिसका परिणाम यह है, कि व्यक्ति अनेकों भयंकर रोगों से ग्रसित हो चुका है। मन पर कोई अंकुश ही नहीं है। विषय विकारों में ऐसा गलतान हो चुका है, कि मन भयंकर राक्षस हो चुका है। किसी में सहने की शक्ति नहीं बची है। जिस कारण परिवारों में विछेद हो रहे हैं। दया धर्म तो मानों बहुत दूर की कौड़ी हो रखी है। जबकि गोस्वामी जी इतना स्पष्ट कह रहे हैं, कि तप की आवश्यक्ता तो त्रिदेवों को भी है। क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार तभी हो पाता है, जब त्रिदेव तप का आसरा लेते हैं-

‘तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता।
तपबल बिष्नु सकल जग त्रता।।
तपबल संभु करहिं संघारा।
तपबल सेषु धरइ महिभारा।।’

इसी तप की महिमा को महिमा मंडित करने के लिए, माँ पार्वती जी तप के निकल पड़ी।

वे सबसे पहले, कुछ काल तक तो केवल जल और वायु का ही सेवन करती हैं। फिर अनेकों प्रकार के कठोर उपवास करती हैं। उसके पश्चात, जो बेल पत्र सूख कर धरती पर गिर जाते थे, माँ पार्वती ने उन्हीं बेल पत्रें को ही खाती हैं। वह भी कोई दो चार दिन नहीं, अपितु पूरे तीन हजार वर्ष-

‘कछु दिन भोजनु बारि बतासा।,
किए कठिन कछु दिन उपबासा।।
बेल पाती महि परइ सुखाई।
तीनि सहस संबत सोइ खाई।।’

माँ पार्वती ने जो सूखे पत्ते खाकर उपवास रखे हुए थे, अब उन्होंने वे भी छोड़ दिए। अब वे कुछ भी ग्रहण नहीं करती थी। सूखे पत्ते छोडऩे पर ही उनका नाम ‘अपर्णा’ पड़ा। माँ पार्वती जी का इतना भयंकर तप देख कर आकाशवाणी हुई, कि हे पर्वतराज की सुपुत्री! सुन तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असहाय कष्टों को छोड़ कर अपनी सामान्य अवस्था को प्राप्त हो। अब महान कष्टों की आवश्यक्ता नहीं रहेगी, क्योंकि तुम भगवान शंकर से मिलने के लिए सिद्ध हो चुकी हो। ब्रह्मा जी द्वारा हुई आकाशवाणी में अत्यंत प्रसन्नता थी।

ब्रह्मा जी कहा रहे थे, कि हे भवानी! संसार में बहुत से धीर, मुनि और ज्ञानी हुए हैं। किंतु ऐसा कठोर तप आज तक किसी ने भी नहीं किया। अब मैं तुम्हें जो कहने जा रहा हुँ, उसे श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी समझकर अपने हृदय में धारण करना। हे भवानी! अब आपके पिता जी आपको बुलाने आयेंगे। तब ऐसा न हो, कि आप तप ही करते रहियेगा। आप उनका कहना मान कर एवं हठ छोड़ कर उनके साथ घर चले जाना। केवल इतना ही नहीं, जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें, तब इस वाणी को ठीक मानना।

माँ पार्वती ने जैसे ही यह आकाशवाणी सुनी, तो उनकी प्रसन्नता की कोई पार न रही। हर्ष के मारे उनका सरीर पुलकित हो गया। उन्होंने अपने जीवन के सार को पाने के लिए लक्षय को भेद दिया।

आवश्यक्ता है कि हम भी अपने जीवन में माँ पार्वती के आदर्शों को धारण करें। ठीक है, हम अपने जीवन में अलग-अलग लक्षय निर्धारित कर सकते हैं। किंतु यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए, कि हमारा प्रथम कार्य व लक्षय ईश्वर को पाना है। उसमें ही विलीन हो जाना है।

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